(एक मध्यम वर्गीय माँ की चिंता अपनी बेटी के भविष्य को लेकर)
डर के साये में पलकर
सहमी सहमी बड़ी हुई
उस घर से जब इस घर आयी
मजबूरी भी साथ हुई
तेरे आने की आहट पर
ताने और सुने बस ताने
ख़ामोशी से सब सहते
रिश्ते मुझ को पड़े निभाने
तेरे वज़ूद पर आंच आने की
बातों से सहम गयी थी
मैं खुदगर्ज नहीं हूँ बेटी
बस थोड़ा सा डर गयी थी
तू आगे पढ़ना चाहती थी
छोटे कदम बढ़ना चाहती थी
भाई के जैसे कदमों से
आसमान छूना चाहती थी
रस्मों की जंजीरों से
तेरे क़दमों को बाँध दिया
मैं तेरी दोषी हूँ बिटिया
तेरा रास्ता रोक दिया
माफ़ मुझे कर देना बेटी
अपने कल में घिर गयी थी
मैं खुदगर्ज नहीं हूँ बेटी
बस थोड़ा सा डर गयी थी
अपने घर तुम आज चली हो
अपना घर आबाद करोगी
वादा करो कि डर के साये में
जीवन न बर्बाद करोगी
तुम अपने बच्चों के सपनों को
अपने समझ कर पूरा करना
अपने डर का साया उनके
सपनों पर मत पड़ने देना
अपनी माँ जैसी न बनना
अपने डर से जो डर गयी थी
मैं खुदगर्ज नहीं हूँ बेटी
बस दुनिया से डर गयी थी