योद्धा रण के अंतिम दिन में रणभूमि में
कर रहा बीते दिनों की याद
असमंजस में सोच रहा जो होगा
युद्धकाल के बाद
दुविधा उसकी जान गुरु दिए शूरवीर को ज्ञान
फिर कहा देकर आशीर्वाद हे पार्थ
कर याद किस तरह माँ के सीने से लग व्याकुल
तज आया था तू घर आँगन बरगद पनघट और सरिता तट
सब पुकारते खींच रहे थे सब तेरा मन पर तू न रुका
सहज चल दिया मातृभूमि को शीश नवाने
कर्ज चुका कर्तव्य निभाने
रणभूमि की बलिवेदी पर निज प्राणो की आहुति
का कौल उठाने
पर्वत को किया ध्वस्त बनायीं राह खिलाये फूल
आसमान पर दी दस्तक
श्रम सामर्थ्य से समय वृक्ष झकझोर
कर लिया है अपना हक़
मुकुट तेरा तलवार तेरी है धार ढाल गांडीव
बजी फिर से रणभेरी
अब नया युद्ध प्रारम्भ न कर विश्राम तू खींच कमान
दिग्विजय होगी तेरी
तिथि के पन्नों पर परिश्रम की स्याही से जो
वर्ण लिखे इतिहास रचेंगे
स्नेह भाव से और सदभाव से जो सींचे थे
प्रणय बंध तेरे साथ चलेंगे
तू भविष्य में नए चरित्र में स्व-कौशल से
लिखेगा एक नयी इबारत
अनुजों का बन पथप्रदर्शक और संतति का
प्रेरणानायक